मंज़िल वहीँ थी
सफ़र जब शुरू किया, मंज़िल वही थी
कांटे हज़ार थे
पत्थर इधर उधर बिखरे
कदम दर कदम हर कदम चुबते
पर रुकता नही मै, बस चलता रहता
क्षण कुछ और चलता तो पाता
मंज़िल वहीँ थी
समय बीतता गया, मै चलता गया
पर मंज़िल वही थी
कुछ कदम और चला मै, मंज़िल की और बढ़ा मै
अब लगा जेसे मंज़िल करीब हो, पर नहीं
मंज़िल वहीं थी
लड़खड़ाया बहुत था
दूरी से डर बैठा, कुछ सहमा
किसी ने आकर हाथ थम लिए
फिर एक नया जूनून लिये
साथ अपनों को लिए
रफ़्तार तेज़ कर , चला में ज़ोरों से
पर न जाने क्यों
मंज़िल वहीं थी
राते बीत गये, दिन बीत गए
पत्थर और सख्त हों गए
जो साथ थे वो दूर हो गए
पर
मंजील वही थी
कुछ शक हुआ अपनी चाल पे,
पलट कर देखा मैने
ना जाने कितनी ही मंजिलें पार कर चूका था
फिर जब हुआ शक अपने हाल थे,
तो पाया मेने
राह मंज़िल की छोड़,
मै लालच कर चला था
लौटना भी चाहता था, कदम भी बढ़या
मगर
मंजिल वही थी……!
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